अवनीश आर्य
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ये जो लोग
छोड़ देते है,
सुबह ही अपना घर
हथेली पर लेकर
ढेरों परेशानियों का गुच्छा।
और ढूंढते हैं,
मन में उठ रहे
तमाम सवालों के
जवाब।
और देर शाम को
थक हार कर
संग लाते हैं,
कुछ नयी
मगर मिलती-जुलती
परेशानी और सवाल।
जिनका कल सुबह
फिर से,
ढूढ़ने जाना है,
जवाब।
ये मानव के शक्ल में,
मशीन के पुर्जे जैसे
कहीं हम तो नहीं ?
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